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पराया जिस्म का स्वाद Sexy Kamvasna Chudai

पराया जिस्म का स्वाद Sexy Kamvasna Chudai

उसके पास लोग बोरिंग के काम के लिए दूर-दूर से आते थे। इस कारण सारे गांव में उसकी तूती बोल रही थी और लक्ष्मी छप्पड़ फाड़ कर बरस रही थी। थोडे़ ही दिनों में उसके वारे न्यारे हो गए थे।
उसका गांव की ही एक लड़की परमजीत कौर से विवाह भी हो गया था। विवाह हुआ, तो उसके बाल-बच्चे भी हो गए। उसके तीन लड़के थे, जिन्हें उसने अपना ही काम सिखाकर कमाने योग्य बना दिया था। जब वे अपने पैरों पर खड़े हुए तो उसने उनका भी विवाह कर दिया। उसका परिवार अब दिन दुगनी और रात चैगनी उन्नति कर रहा था।
इस तरह उसके दिन सुख-चैन से गुज़र रहे थे। उसके पास इतना अधिक काम आने लगा था, कि उसे फुर्सत ही नहीं मिलती थी। उसने काम का बोझ बढ़ जाने पर अपनी सहायता के लिए एक सहायक रख लेना उचित समझा। अतः उसने सुरजीत सिंह मेहरा को अपना सहायक रख लिया।
सुरजीत सिंह मेहरा विवाहित था और उसकी पत्नी का नाम कमलजीत कौर था। कमलजीत कौर देखने में सुंदर, लुभावनी तथा बड़ी मनमोहिनी थी। उसका चांद सा गोरा मुखड़ा बरबस ही सबको अपनी ओर खींच लेता था।
उनके यहां एक लड़का भी पैदा हुआ, जो कमलजीत कौर की तरह ही सुंदर और सलोना था। किन्तु वह जितनी मनमोहिनी, सुंदर और सलौनी थी, उसकी तकदीर उतनी ही खराब थी।

 

उसका पति पूरा नशेड़ी था और हर वक्त नशे में धुत्त रहता था। इसी कारण उसका कहीं काम नहीं जम पा रहा था। उसके घर में धीरे-धीरे कंगाली डेरा डालने लगी। इस परेशानी में वह और अधिक नशे में डूबने लगा। उसकी पत्नी उसके इस नशे की लत्त से बहुत परेशान हो गई थी।
सुरजीत सिंह भी बोरिंग का काम करता था, किन्तु वह विक्टर मसीह की तरह कारीगर नहीं था। उसके सितारे सदा गर्दिश में ही रहते थे। किन्तु एक दिन उसकी पत्नी ने उसे घर की हालत पर तरस खाने के लिए मजबूर किया। इस कारण वह विक्टर मसीह का शार्गिद बन गया। उसने धीरे-धीरे अपने गुरु के सारे गुर सीख लिए।
अब उसकी भी घर की स्थिति सुधरने लग गई, किन्तु नशेड़ियों को तो नशा करने का बहाना चाहिए। जब गम आए, तो गम को भुलाने के लिए पीते हैं। जब खुशी आती है, तो खुशी मनाने के लिए पीते हैं। यही हाल सुरजीत सिंह का था, जब रोजगार नहीं था, तब भी वह दुःख में पी रहा था। अब जब उसका रोजगार जम गया था, तब उसने इस खुशी में और भी अधिक शराब पीना शुरु कर दिया।
वह सारा दिन बाहर काम पर रहता और रात को शराब पीकर घर जाकर सो जाता। उसने अपने उस्ताद को भी शराब की दावतें देनी शुरु कर दीं। उस्ताद जब बहुत खुश हो जाता था, तो अपने शार्गिद के साथ जाम की महफिल लगा लेता था। किन्तु शार्गिद प्रतिदिन काम से निपट कर घर पहुंचते ही लाल परी की आगोश में खो जाता था।
जिस कारण पत्नी सारी रात करवटें बदलती रह जाती थी। उसने कई बार उसे आगोश में आने की दावत दी थी, किन्तु वह तो लालपरी की आगोश में खोकर उठने के काबिल ही नहीं रह जाता था।
‘‘अरे, भाई सुरजीत सिंह!’’ विक्टर मसीह ने रात्रि लगभग आठ बजे अपने शार्गिद सुरजीत सिंह के दरवाजे पर दस्तक देते हुए पुकारा।
‘‘हां जी… कौन?’’ कमलजीत कौर ने दरवाजा खोलने से पूर्व अंदर से ही पूछा था।
‘‘मैं हूं विक्टर मसीह।’’ विक्टर मसीह ने तुरंत उत्तर दिया।
‘‘आईए सर, अंदर आ जाईए।’’ विक्टर की पत्नी कमलजीत कौर ने दरवाजा खोलते हुए कहा।
‘‘बस, कोई बात नहीं! सुरजीत सिंह से मिलना था। ज़रा उसे भेजना।’’ विक्टर मसीह ने कमलजीत कौर पर नज़र डालते हुए कहा।
‘‘जी, वह तो नशे में टुन्न पड़े हंै।’’ कमलीत कौर ने भी नजरें मिलते हुए कहा, ‘‘कोई खास काम हो, तो उठा दूं?’’
‘‘नहीं, रहने दो।’’ विक्टर मसीह बोला, ‘‘अब तो वह कोई बात भी नहीं समझेगा। बस, कल उसे जल्दी मेरे पास भेज देना।’’
विक्टर मसीह इतना कहकर मुड़ा ही था, कि तभी कमलजीत कौर तपाक से बोली, ‘‘अरे सर बैठिये तो सही, मैं अभी आपके लिए चाय बनाकर लाती हूं।’’ कहकर कमलजीत कौर रसोई की ओर चलने को हुई।
‘‘नहीं, नहीं! मैं फिर कभी आऊंगा।’’ विक्टर मुस्करा कर बोला, ‘‘तब जरुर पीऊंगा आपके हाथ की चाय। आज की मेरी चाय डियू रही आप पर।’’ कहते हुए विक्टर मसीह चला गया।
उस दिन विक्टर मसीह, कमलजीत कौर के पास से लौट तो गया, किन्तु वह अपना दिल उसके पास ही छोड़ आया था। उस दिन कमलजीत कौर का चांद-सा मुखड़ा देखते ही उसके होश उड़ गये थे। वह कमलजीत कौर के तपते सोने सा यौवन और चैहदवीं के चांद जैसा सौंदर्य देख कर दंग रह गया था।
कमलजीत कौर को देखने के पश्चात् तो उसके दिन का चैन खो गया था और उसकी रात की नींद उड़ गई थी। वह सारे दिन उसकी यादों में खोया रहा। उस दिन वह बैठा कहीं था और खोया कहीं था। उस दिन उसकी आंखों के आगे सारा दिन कमलजीत कौर का चांद सा मुखड़ा चलचित्र की तरह आता-जाता रहा।

इस कारण उस दिन वह शीघ्र ही अपना कार्य समाप्त कर सुरजीत सिंह के घर जा पहुंचा। उसने सुरजीत सिंह के घर पहुंचते ही दरवाजे पर दस्तक दी। कमलजीत कौर ने ही दरवाजा खोला। वह विक्टर को दरवाज़े पर खड़ा देख मुस्कुरा पड़ी।
‘‘क्या सुरजीत सिंह है…? लो मैं तो आ गया, अपनी डियू रहती चाय पीने।’’ विक्टर ने भी मुस्कुराते हुए कहा।
‘‘हां, वह ऊपर कमरे में हैं, आप भी चलो। मैं अभी बनाकर लाती हूं चाय।’’ कमलजीत कौर ने ऊपर चलने का इशारा करते हुए कहा।
उस दिन भी सुरजीत सिंह नशे में धुत्त पड़ा था। उसके नशे की इस आदत से कमलजीत कौर भी बड़ी परेशान थी। वह तो मद्यपान करके नशे की आगोश में ऐश करता था। किन्तु कमलजीत कौर का यौवन उसे सारी रात डंसता रहता था। वह सारी रात्रि सूने बिस्तर पर पड़ी तड़पती रहती थी। वह अनेकांे बार इस पीड़ा के निवारण के लिए उससे लड़ चुकी थी। किन्तु वह नशे की आगोश में खो जाने के पश्चात् अपने आपको ही भूल जाता था।
‘‘क्या यह जनाब आज भी इतनी जल्दी दारु पीकर सो गए?’’ विक्टर ने सुरजीत सिंह को नशे में धुत्त पड़ा देखकर पूछा।
‘‘अरे! सर आज ही क्या।’’ आहें भरते हुए कमलजीत कौर बोली, ‘‘यह तो सालों से ऐसे ही पीकर बेसुध पड़ जाते हैं। घर आकर इन्हें न बच्चों की चिंता रहती है न मेरी।’’
‘‘ये बड़ा ही लापरवाह है आदमी है। इसे दारा नहीं, दारु से लगाव है।’’ विक्टर ने सहानुभूति जताते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं इसे सब समझा दूंगा। तुम चिंता न करो।’’
‘‘अजी सर! आप इसे क्या समझायेंगे? इसे तो अपनी जोरु और बच्चे की भी तनिक चिंता नहीं है।’’ कमलजीत कौर ने चाय लेकर आते हुए कहा, ‘‘घर में खाने को दाना है या नहीं इसे कोई चिंता नहीं रहती। बच्चे के लिए खाने के लिए कुछ हो या न हो, पर इसे दारु जरूर मिलनी चाहिए। इसकी दारु की लत्त के कारण घर का खर्चा भी नहीं चल पाता है।’’
‘‘तुम चिंता न करो, अब मैं हूं ना।’’ चाय की चुस्कियां लेते हुए विक्टर बोला, ‘‘तुम्हें कोई भी तकलीफ हो, तो मुझे बता देना, उसे मैं दूर कर दूंगा।’’
उस दिन से विक्टर, सुरजीत सिंह के घर आने-जाने लगा। उसके घर आने-जाने से उसे भी उनके घर का सारा भेद पता लग गया था। वह यह जान चुका था, कि कमलजीत कौर धन-सुख तथा तन-सुख से तंग रहती थी। विक्टर ने उसकी इन कमजोरियों का लाभ उठाना शुरु कर दिया।
इस प्रकार उसने उसको दोनों कठिनाइयों से उबारना शुरु कर दिया।
एक दिन विक्टर चाय पीकर पांच सौ रुपए का नोट कमलजीत कौर के हाथ में थमाने लगा।

 

‘‘नहीं, नहीं…. यह क्या कर रहे हैं आप?’’ कमलजीत कौर ने रुपए न लेने का बहाना बनाया, ‘‘मैं यह रुपए नहीं लूंगी, आप तो बस इनको सुधार दो।’’
‘‘अरे! मैं यह तुम्हें कोई ख़ैरात नहीं दे रहा हूं।’’ विक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा,
‘‘मैं तो तुम्हारे हाथ की बनाई लाजवाब चाय के लिए ईनाम दे रहा हूं।’’
परन्तु चाहते हुए भी कमलजीत कौर रुपए न थामने का ढोंग-सा करती रही। परन्तु बाद में उसने अनमने मन से रुपए लिए और मुस्कराते हुए चाय के खाली कप लेकर शुक्रिया कहते हुए किचन में चली गई।
इस तरह विक्टर उनको आर्थिक स्थिति से उबारने लगा।
एक दिन जब विक्टर, सुरजीत सिंह के घर चाय पी रहा था। तब कमलजीत कौर उसके आगे अपना रोना रोने लगी। किन्तु विक्टर ने देखा कि सुरजीत सिंह नशे में धुत्त पड़ा हुआ है और उनका बच्चा भी अलग पंलग पर सो रहा है। विक्टर भी उसे बार-बार सब ठीक हो जाने का राग सुनाता रहा।
किन्तु उसने चाय पीने के पश्चात् रोज की तरह उसे कुछ रुपए दिए, इस बार कमलजीत कौर ने बिना ना-नुकर के रुपए ले लिए।
अब विक्टर जाने के लिए जैसे ही नीचे वाले कमरे में आया, तो उसने कमलजीत कौर को एकदम अपने अंक में भर लिया। उसके सेब जैसे गोरे-गोरे लाल गालों पर चुम्बनों की बौछार करते हुए वह धीरे-धीरे उसके उरोजों को मसलने लगा…
झूठे मुंह कसमसाते हुए बोली कमलजीत, ‘‘ओहो… यह क्या कर रहे हो? हटो, यह ठीक नहीं है।’’
‘‘अरे कमलजीत असली नशा तो तू है। सुरजीत क्या जाने कि एक औरत के हुस्न का नशा क्या होता है?’’ कहते हुए विक्टर ने अपनी पकड़ और मज़बूत कर दी और उसे चूमने लगा।
‘‘नहीं, नहीं! ऐसा अत्याचार न करो।’’ कमलजीत कौर ने उसके चंगुल से छूटने का नाटक करते हुए कहा, ‘‘यह पाप है, ऐसा पाप मत करो…।’’
‘‘अरे पगली! अत्याचार तो तू कर रही है अपनी जवानी पर।’’ विक्टर अब उसके वस्त्र के अंदर हाथों से उसके उभारों का मर्दन करते हुए बोला, ‘‘जरा अपने इन मासूम अंगों पर तो तरस खा, जो पुरूष के स्पर्श के लिए मचले जा रहे हैं।’’ कहकर वह उन्हें पागलों की तरह और मसलने लगा।
विक्टर ने उसके अंगों का मर्दन करते हुए उसे वस्त्रहीन कर दिया। वह बेमन से उसे रोकती रही और अंदर ही अंदर चाह रही थी, कि वह उसे छोड़े नहीं और यूं ही उसके एक-एक अंग को चटका कर रख दे।
हुआ भी यही, विक्टर डील-डौल से मोटा-तगड़ा था। उसने कमलजीत कौर को वहीं फर्श पर जबरन लेटा दिया और अपनी मनमानी करने के लिए उसका खास वस्त्र खोलने लगा। इस बार और भी ज्यादा विरोध का नाटक करते हुए बोली कमलजीत ‘‘मैं हाथ जोड़ती हूं छोड़ दो मुझे। ये सब अच्छा नहीं है।’’
‘‘अच्छा कहां से लगेगा पगली।’’ अपने होंठों पर जीभ फिराते हुए बोला विक्टर, ‘‘मुझे तेरा ये आखिरी ‘वस्त्र’ तो उतारने दे।’’ वह कमलजीत के बदन को खा जाने वाली नजरों से घूरते हुए बोला, ‘‘इसके बाद जो होगा, उसके बाद तो सब अच्छा ही अच्छा होगा और तुझे भी बहुत अच्छा लगेगा।’’

कहकर विक्टर ने कमलजीत का आखिरी ‘वस्त्र’ भी निकाल डाला और कमलजीत पूर्ण निर्वस्त्र अब विक्टर के नीचे पड़ी थी। कमलजीत के खास ‘अंग’ को देखकर तो विक्टर पागल ही हो गया। उसने जैसे ही कमलजीत के उस ‘अंग’ पर हाथ रखा तो कमलजीत सिहर उठी, ‘‘आह! छोड़ दो न।’’ वह अब भी विरोध कर रही थी।
परन्तु इस बार विक्टर ने महसूस किया, कि इस बार उसकी आवाज में विरोधाभास कम था और समर्पण की भावना ज्यादा थी। वह विरोध और मस्ती के भाव लिए मिश्रित स्वर में बोली, ‘‘मैं तुम्हारी पकड़ से जल्दी छूटना चाहती हूं।’’ कहते हुए अब वह उसे परे धकेलने की बजाए खुद में समाने के लिए प्रेरित करने लगी।
कमलजीत, की अवस्था देखकर विक्टर मुस्करा पड़ा। वह मन ही मन ताड़ गया, कि कमलजीत को भी अब आनंद की अनुभूति हो रही है। उसके विरोध में एक मौन स्वीकृति है। कमलजीत ने कहा था, कि वह उसकी पकड़ से जल्दी छूटना चाहती है। यानी कि वह भी चाह रही थी, कि विक्टर जल्दी से उसकी देह में समा कर अपनी और कमलजीत की प्यास को शांत करे।
फिर क्या था, विक्टर एक ही प्रहार में कमलजीत की ‘देह’ में समा गया। कमलजीत एकदम से मचल उठी, ‘‘आह! मार डाला।’’ वह मादक सीत्कार भरने लगी, ‘‘इस तरह से मरने के लिए तो मैं जाने कब से तरस रही थी।’’ वह पूरी तरह समर्पण की भावना में आ गई थी।

पराया जिस्म का स्वाद Sexy Kamvasna Chudai

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जो थोड़ी देर पहले विरोध कर रही थी, अब स्वयं ही उचक-उचक कर अपने बलात्कारी को बलात्कार करने के लिए प्रेरित करने लगी, ‘‘उ..म… हाय! थोड़ा तेज चलो न मेरी गीली ‘पटरी’ पर।’’ वह सांकेतिक भाषा में बोली, ‘‘ताकि दोनों की स्टेशन जल्दी आ जाए।’’
फिर तो विक्टर ने भी देर करना उचित नहीं समझा और जल्दी-जल्दी सरपट दौड़ते हुए कमलजीत को छका कर रख दिया। उसने अपने तन की भड़ास कमलजीत की गुलाबी में ‘देह’ के अंदर उतार दिया था। कमलजीत भी बुरी तरह हांफ रही थी।
वह विक्टर के सीने से लिपटती हुई बोली, ‘‘हाय! रब्बा तुमने तो मार ही डाला। क्या दौड़ते हो तुम, घोड़ा भी तुम्हारे आगे कुछ नहीं है।’’
कमलजीत कौर को उसके आलिंगन में अनूठे सुख का अनुभव हुआ था। उसकी अतृप्त देह विक्टर के जोशीले व गठीले शरीर की अठखेलियों से गदगद हो गई। इस प्रकार विक्टर ने कमलजीत के तन-सुख के अभाव को भी उबारना आरम्भ कर दिया।
अब विक्टर रात होते ही उसके घर आ जाता था। सुरजीत सिंह लालपरी के आगोश में ऊपर के कमरे में बेखबर पड़ा रहता था और विक्टर नीचे के कमरे में कमलजीत कौर से रंग-रलियां मनाकर चला जाता था।
वह विक्टर की हर मांग को पूरा करती थी, तो विक्टर भी उसकी अंगुलियों पर नाच रहा था।
लगातार यही क्रम चलता रहा, तो उनके इस आचरण की हर घर में चर्चा होने लगी। सुरजीत सिंह ने भी यह चर्चा सुनी, तो उसने कमलजीत कौर को फटकारा। किन्तु सुरजीत सिंह रात होते ही शराब पीकर अपने कमरे में सो जाता था। विक्टर उसके सो जाने के बाद वहां आता और अपनी वासना और कमलजीत कौर की हवस मिटाकर चलता बनता।
उनकी इस हवस-लीला का सुरजीत सिंह को तो पता नहीं लगता था, किन्तु सुरजीत सिंह के आस-पड़ोसियों को यह गंवारा न हुआ।
‘‘सुरजीत सिंह, तू अपने घर विक्टर का आना बंद कर दे।’’ सुरजीत सिंह के एक बुजुर्ग पड़ोसी ने उसको ताकीद की।
‘‘हां, जी। मैंने उसको आने से मना कर दिया है।’’सुरजीत सिंह ने बुजुर्ग से भोलेपन से कहा।
‘‘तू तो शराब पीकर नशे में बेसुध सो जाता है। किन्तु विक्टर तेरे घर रोज आता है, तुझे तो इसका पता ही नहीं चलता।’’ बुजुर्ग पड़ोसी ने भेद खोलते हुए उसे आगाह किया।
‘‘अंकल मैंने तो कमलजीत कौर को बहुत लताड़ा है। विक्टर का आना भी मैंने बंद कर दिया है।’’ सुरजीत सिंह ने बड़ी दृढ़ता से उसे उत्तर देते हुए कहा।
‘‘हमारे यहां तो बहू-बेटियां हैं। यह हम सहन नहीं कर सकते। तू कुछ कर नहीं तो ठीक नहीं होगा।’’ कहते हुए बुजुर्ग पड़ोसी ने उसे स्थिति से अवगत कराया था।
सुरजीत सिंह ने उसे अपने घर विक्टर के बिल्कुल न आने देने का भरोसा दिलाया। उसने कमलजीत कौर को भी डांटा-फटकारा। विक्टर से भी उसने साफ कह दिया कि वह उसके घर न आया करे।
सुरजीत सिंह के कहने पर विक्टर कुछ दिन तो नहीं आया। किन्तु उसने थोड़े दिनों बाद फिर आना शुरु कर दिया। इस पर सुरजीत सिंह के आस-पड़ोसियों ने इसकी शिकायत पंचायत से की।

समिति मैम्बर रणधीर सिंह तथा पंचायत मैम्बर इलास मसीह ने सुरजीत सिंह को हिदायत की, कि वह विक्टर पर पूर्ण तौर पर पाबंदी लगाए, अन्यथा उसी के विरुद्ध पंचायत कार्यवाई करेगी।
पंचायत के इस फैसले से सुरजीत सिंह चैकस हो गया। उसने पक्के तौर पर विक्टर का आना पूर्ण रूप से बंद कर दिया था।
कहते हैं, कि इश्क वो आग है, जो जलाए जलती नहीं, बुझाए बुझती नहीं। जैसे कि इसके संबंध में विश्व विख्यात शायर गालिब ने फरमाया है कि, ‘‘इश्क वो आतिश है ग़ालिब, जो लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।’’
विक्टर और कमलजीत कौर का भी यही हश्र हुआ। सुरजीत सिंह के लाख समझाने व प्रयत्न करने के बाद भी वे दोनों नहीं माने। सुरजीत सिंह ही नहीं पंचायत ने भी उनके विरुद्ध सख्त कदम उठाए। यहां तक कि विक्टर की अपने सभी रिश्तेदारों से इस बात को लेकर उनसे लड़ाई तक हो गई। किन्तु विक्टर मसीह और कमलजीत कौर मिले बिना न रह सके। उनके इश्क की आग ज्यों-ज्यों बुझाई, त्यों-त्यों वह बढ़ती चली गई।
अब उन्होंने मोबाइल के माध्यम से बाहर खेतों में मिलना शुरु कर दिया। इस तरह उनके वासना की हवस पूरी होती रही। उनकी यह करतूत विक्टर की पत्नी परमजीत कौर और उसके बच्चों को भी हुई, तो उन्होंने भी इसका सख्त विरोध किया।
वासना की इस हवस में विक्टर ने कमलजीत कौर से मिलकर अपनी एक और नई दुनिया बसाने का फैसला कर लिया था।
‘‘कमलजीत क्या तू मुझे प्यार करती है?’’ विक्टर ने एक दिन खेतों में अपनी प्यास बुझाने के उपरान्त कमलजीत से पूछा, ‘‘सच बताना।’’
‘‘रब्ब से भी ज्यादा तुझे प्यार करती हूं। चाहे आजमा कर देख ले।’’ कमलजीत कौर ने विश्वासपूर्वक कहा।
‘‘तो फिर चल।’’ विक्टर गंभीर होकर तपाक से बोला, ‘‘हम दोनों कहीं भाग चलें।’’
‘‘मैं भी यही सोचती थी।’’ कमलजीत कौर ने थोड़ा सोचने की हिदायत दी, ‘‘किन्तु इतनी जल्दी यह फैसला लेना क्या सही है?’’
फिर इस पर विचार करने के लिए दोनों अपने-अपने घर चले गए। लेकिन विक्टर का घर लड़के और पोतों से सम्पन्न था। विक्टर जैसे बुढ्ढे पर जो जवानी छाई हुई थी। उसके परिवार के सदस्यों ने भी उसका डटकर विरोध किया। सुरजीत सिंह और उसके पड़ोसियों के विरोध के साथ-साथ विक्टर को अपने परिवार का विरोध भी सहना पड़ा, तो वह बौखला उठा।
एक रात विक्टर लगभग दस बजे सुरजीत सिंह के घर जा पहुंचा। कमलजीत कौर, विक्टर को देखते ही ऐसे लिपट गई, जैसे बरसों से वे न मिले हों। हमेशा की तरह सुरजीत सिंह और उसका बेटा ऊपर के कमरे में सो रहे थे। अतः नीचे वाले कमरे में उन्होंने उफनते हुए वासना के तूफान को शान्त किया।
विक्टर ने कमलजीत कौर को बताया, कि वह आज उसके साथ भाग जाने के लिए आया है। अब विक्टर की पत्नी और उसके बच्चे उसे मिलने से रोकते हैं। उनका इस प्रकार मिलना अब संभव नहीं है। वह भी तैयार होकर उसके साथ भाग चले।
‘‘नहीं, नही ंविक्टर।’’ कमलजीत मजबूरी जताते हुए बोली, ‘‘मेरा छः साल का बच्चा है। मैं अपने बच्चे को छोड़कर तेरे साथ कैसे जा सकती हूं?’’
‘‘जब मैं अपने बच्चों और पोतों को छोड़ सकता हूं, तो तू क्यों नहीं छोड़ती।’’ विक्टर ने उसे समझाया।
‘‘विक्टर नहीं।’’ कमलजीत पुनः समझाते हुए बोली, ‘‘तू मेरे बच्चे को अपनाएगा नहीं और मैं अपने बच्चे को छोड़ नहीं सकती। फिर मैंने तुझ से पहले भी कहा था, कि हमें इतनी जल्दी नहीं करनी चाहिए।’’
‘‘हम कहीं दूर चलकर अपना नया जीवन शुरु करेंगे। मैं अपना सारा परिवार छोड़ आया हूं।’’ विक्टर ने हठ करते हुए कहा, ‘‘अब तू भी सब छोड़कर मेरे साथ चल।’’
‘‘नहीं विक्टर, मेरा बच्चा मेरे बिना मर जाएगा।’’ कमलजीत बार-बार विरोध करते हुए बोली, ‘‘मैं अपने बच्चे को मरने के लिए नहीं छोड सकती। तुम्हारे साथ फिलहाल नहीं जाना चाहती हूं मैं।’’
‘‘यदि तू मेरे साथ नहीं चलेगी, तो मैं मर जाऊंगा।’’ विक्टर ने बड़ी अधीरता से कहा, ‘‘सुन ले कमलजीत, अब मैं वापिस घर नहीं जाऊंगा। अब तो मेरी अर्थी ही घर वापिस जाएगी यहां से।’’

विक्टर बहुत देर तक कमलजीत कौर से भाग चलने की हठ करता रहा। किन्तु कमलजीत ने अपने बेटे को छोड़कर उसके साथ भाग जाने से साफ इंकार कर दिया।
जब विक्टर को यह विश्वास हो गया, कि वह उसके साथ भाग जाने को तैयार नहीं है, तब वह शीघ्रता से बाथरुम में घुस गया। वह थोड़ी देर बाद बाथरुम में से पसीना-पसीना होकर बाहर निकला। वह लड़खड़ाता हुआ पास पड़ी कुर्सी पर आकर बैठ गया और बुरी तरह छटपटाने लगा।
उसकी यह अवस्था देखकर कमलजीत कौर घबरा गई। वह जल्दी से दौड़ कर ऊपर कमरे में सो रहे अपने पति को बुला लाई। सुरजीत सिंह ने जब उसे छटपटाते देखा, तो उसके होश उड़ गये। उसने समझा कि शायद दिल का दौरा पड़ गया है। वह जल्दी-जल्दी उसके हृदय और पैरों को मसलने लगा। किन्तु वह थोड़ी देर तक तड़पने के बाद शांत हो गया।
उसकी सांसें चलनी बंद हो गईं और उसके हाथ पैर अकड़ गए। यह देखकर वे दोनों घबरा गए और वे सोचने लगे कि इस मुसीबत से कैसे छुटकारा पाया जाए? उन्होंने यह सोच-विचार किया कि वे इस लाश को कहीं फेंक नहीं पाएंगे। इसका कारण यह था कि वह डील-डौल से मोटा-तगड़ा और भारी था। साथ ही इस बात का भी डर था, कि यदि किसी ने उसकी लाश को फेंकते देख लिया, तो उसकी मौत का इल्जाम भी बेकार में उन्हीं पर लग जाएगा।
उन्होंने काफी सोचने के बाद उसके शव को चारपाई पर डाल कर उसी के चाचे के घर के सामने फेंकना चाहा। किन्तु विक्टर का शव ही इतना भारी था, कि उसे वहां तक लेजाते-लेजाते शव जमीन पर गिर पड़ा। इसलिए दोनों पति-पत्नी चारपाई उसी के पास उल्टी करके रख आए।
इस जानकारी के आधार पर पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज की गई दंडावली की धारा में भी संशोधन किया। पुलिस ने भा.दं.सं .की धारा 302 को हटा दिया।
पुलिस द्वारा अब संशोधन क्रमांक 35 के अनुसार अपराध भा0दं0सं0 की धाराएं 306 तथा 201 के अंतर्गत दर्ज किया गया है। दोनों आरोपियों सुरजीत सिंह और कमलजीत कौर को पुलिस ने गिरफ्तार करके न्यायालय में प्रस्तुत किया।

माननीय न्यायाधीश महोदय ने दोनों को जिला बटाला के कारागृह भेज दिया।
कहानी लेखक की कल्पना मात्र पर आधारित है व इस कहानी का किसी भी जीवित या मृत व्प्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर ऐसा होता है तो यह केवल संयोग मात्र हो सकता है।

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