हवस का मारा hawas sex stories
एक दोपहर को विश्नोई अपने कक्ष में आराम फरमा रहे थे कि तभी किसी ने दरवाजा खटखटा कर पूछा, ”क्या मैं अंदर आ सकती हूं, सर?“
”यस कम इन!“ लेटे-लेटे ही विश्नोई ने दरवाजे की तरफ देखते हुए कहा।
कुछ ही पलों में उनके समक्ष एक खूबसूरत बड़ी आंखों वाली युवती आ खड़ी हुई। उसने अपने गुलाबी अधरों पर मुस्कान सजाकर प्रिंसिपल से कहा, ”सर, मैं आपकी विद्यालय की दसवीं कक्षा की छात्रा हूं। मेरा नाम कविता है। क्या आप मेरी मदद करेंगे?“
प्रिंसिपल विश्नोई एकाएक उठकर बैठ गये। कविता की खूबसूरती को देखकर तथा उसकी शहद मिश्रित आवाज़ ने उन्हें काफी प्रभावित किया था। उसकी गहरी आंखों में देखते हुए मंत्रा-मुग्ध होकर बोले, ”तुम मुझसे क्या सहयोग चाहती हो?“
”सर मुझे परीक्षा की तैयारी के लिए अंग्रेजी के ‘नोट्स’ चाहिए। अगर देंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी आपकी।“ कविता ने याचना भाव से देखते हुए प्रिंसिपल से कहा।
विश्नोई ने कुछ सोचा और फिर कविता को अंग्रेजी के नोट्स दे दिए। कविता, प्रिंसिपल का शुक्रिया अदा करके नोट्स लेकर चली गई। मगर अनजाने में वह प्रिंसिपल की नींद व करार भी छीन ले गई। ऐसा विश्नाई की 50 वर्ष की जिंदगी में पहली बार हुआ था, वो भी उम्र के इस पड़ाव में।
विश्नोई अपनी जवानी के दिनों में भी किसी लड़की या औरत की तरफ आकृष्ट नहीं हो सके थे। ना कोई हसीना उनके दिल में जगह बना पाई थी। लेकिन उस रोज कविता के साथ एक छोटी-सी मुलाकात ने उनकी पूरी तस्वीर को बदल कर रख दिया था। बूढ़ा प्रिंसिपल एकदम से जवान हो गया था। वह वहां काफी देर तक बैठा कविता के नैन-नक्श, उसकी आकर्षक मुस्कान तथा कोयल-सी मधुर वाणी के रस में सराबोर होता रहा। इसी बीच जब स्कूल की घंटी बजी तब उसकी तंद्रा भंग हुई।
स्कूल भर में कम से कम 50 लड़कियां थीं और लगभग ढ़ाई सौ लड़के भी थे, मगर आज तक कोई भी लड़का या लड़की प्रिंसिपल के दिल मंे अपनी यादगार छाप छोड़ नहीं पाये। लेकिन यह लड़की कविता, जिसे प्रिंसिपल ने पहली बार में अपनी आंखों से देखा था, चंद-एक मिनटों में ही उसके दिल को गुलाम बनाकर चली गई थी।
अगली मुलाकात में विश्नाई को कविता ने अपने बारे में बताया। वह उसके कस्बे की रहने वाली थी। उसकी मां, पति के रहते हुए भी किसी गैर-पुरूष से शादी रचाकर चुपके से उसके साथ भाग गई थी। उसके पिता ने ही उसे पाला-पोसा और मां-बाप, दोनों का एक साथ प्यार दिया। उसके पिता कविता को जान से बढ़कर चाहते थे। वह धुबड़ी नगर पालिका में कार्यपालक अभियंता थे। घर में पिता, एक आंटी तथा बुआ समेत कुल चार जने रहते थे।
प्रिंसिपल विश्नोई ने भी कविता के आग्रह पर अपने बारे में कुछ बातें बतायीं, कि वह असम के लामंडिग के रहने वाले हैं। बचपन में ही घर छोड़ दिया और मुंबई, कलकत्ता, दिल्ली आदि महानगरों का चक्कर काटते हुए जिंदगी के 25 वर्ष बिता दिए। फिर गुवाहाटी में रहकर उच्चतर शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद धुबड़ी आ गये। अध्यापन कार्य में जुटे तो यह सिलसिला भी चल पड़ा।
कविता, विश्नोई से ट्यूशन पढ़ने लगी। एक रोज विश्नोई ने पढ़ने के क्रम में ही कविता की नोटबुक में अपने दिल का भेद लिखकर जवाब मांगा। कविता घर लौटी तो रात में उसका ध्यान नोट्स बुक में विश्नोई द्वारा लिखी बातों की ओर गया। वह बड़े चाव से उसे पढ़ने लगी ।
उसमेे लिखा था, ”कविता, यद्यपि मैं एक अंतर्मुखी स्वभाव का व्यक्ति हूं, पर तुम्हारे सम्पर्क में आकर खुद मंे जैसा बदलाव पा रहा हूं, उसे नाम देते हुए हिम्मत नहीं हो रही है। कहीं तुम बुरा न मान जाओ। मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता कविता, पर मैं यह जानने के लिए अत्यंत बेचैन हूं, कि मेरे जज्बातों की लड़ियों को कोई मुकाम मिल सके।“
प्रत्युत्तर में कविता ने भी लिखा, ”मैं एक कविता हूं। खुली किताब की तरह हूं। आपके जज्बातों की लड़ियां बिखर भी जाएं तो उसके मोती इस खुली किताब के पन्नों पर ही गिरेंगे, जिन्हें मैं समेट कर अपने हांेठों से लगा लूंगी….कविता।“
प्रिंसिपल विश्नाई को उम्मीद नहीं थी। कि कविता भी उसे उतना ही चाहती है, जितना कि वह उसे चाहता था। खतों के जरिए ही हाल-ए-मोहब्बत की कसक और बढ़ती ही गई।
फिर एक दिन वो सब कुछ हो गया, जिसकी आशा उन दोनों में से किसी को भी नहीं थी।
एक रोज जब कविता, विश्नोई के पास ट्यूशन पढ़ने आई, तो दोनों बिल्कुल अकेले थे। विश्नोई का दिल अपने पास बैठी कविता के खूबसूरत चेहरे व जिस्म को देखकर बेतरहा धड़कता जा रहा था।
उसने सहसा कविता का हाथ पकड़ा और बोला, ”कविता तुम्हें मेरे साथ किसी तरह का भय या असुविधा तो नहीं महसूस होती। मेरा मतलब है तुम मेरे साथ खुश तो रहती हो। मेरा पढ़ाना तुम्हें अच्छा लगता है?“
”कैसी बातें कर रहे हैं सर आप।“ कविता भी प्रिंसिपल विश्नोई की ओर देखकर बोली, ”आपके पास रहती हूं तो अपनेपन का एहसास रहता है मन में। मुझे कोई असुविधा महसूस नहीं होती।“ फिर एकाएक मसखरी भरे अंदाज में बोली कविता, ”आप कौन-सा मेरे साथ बलात्कार कर देंगे जो मैं डरूं या टेन्शन लूं।“
”अच्छा ऐसा सोचती हो तुम मेरे बारे में कविता।“ कविता के कंधे पर हाथ रखकर बोला विश्नोई, ”अगर मैं सच्ची में बलात्कार करने के मूड में आ जाऊं तो…?“
”आप मेरे साथ बलात्कार कर ही नहीं सकते।“
”क्यों?“ इस बार विश्नोई भी मसखरी में बोला, ”तुम्हें क्या लगता है, क्या मेरे दिल का चोर खड़ा नहीं होता?“
”आप भी न सर।“ कविता मुस्करा कर बोली, ”बलात्कार किसे कहते हैं ये भी नहीं जानते।“ कविता एकाएक शांत हुई और हौले से विश्नोई के करीब आकर बोली, ”जब लड़की की ‘न’ हो और कोई पुरूष उसके उसकी मर्जी के खिलाफ उससे प्रेम करे तो ये बलात्कार कहलाता है। मगर जब लड़की की ‘हां’ हो…।“
”हाय मेरी जान सच!“ विश्नोई बीच में ही कविता की बात काटते हुए चहक कर बोला, ”इसका मतलब तुम्हारी ‘हां’ है?“
”जी…।“ इतना ही बोली कविता और उसने अपनी पलकें नीचीं कर लीं।
कविता की इस अदा पर मर मिटा प्रिंसिपल। उसने तपाक से कविता के जिस्म को अपनी ओर खींचा और बांहों में कसकर उसके गुलाबी होंठों का रसपान करने लगा। कविता भी मदहोश होकर उससे चिपक गई और वह भी सर के होंठों से हांेठ मिलाकर चुम्बन का सुख लेने लगी।
धीरे-धीरे विश्नोई के हौसले बढ़े और उसके हाथ कविता की टी-शर्ट के अंदर उसके कोमल खिले हुए दोनांे कबूतरों को सहलाने लगे। कविता पूरी तरह मस्त हो गई। वह सीत्कार भरते हुए बोली, ”स…हू..आ… आप बहुत अच्छे हैं सर। मैं हमेशा आपकी रहूंगी और आपसे ही ऐसी ट्यूशन लेती रहूंगी।“
”मेरी प्यारी कविता।“ कविता के स्कर्ट के अंदर हाथों से उसकी जांघें सहलाता हुआ बोला प्रिंसिपल विश्नोई, ”मैं तुम्हें इसी प्रकार की ट्यूशन दूंगा वो भी एकदम फ्री…बोलो लोगी न मेरी ट्यूशन?“
”हां..सर।“ कहकर कविता भी सर से लिपट कर बेचैन होने लगी, ”मैं वस्त्रा उतारूं?“
”ओह कविता…।“ एक जोरदार चुम्बन लेते हुए बोला विश्नोई, ”तुम्हारी हर अदा कातिल है…तुम तो वाकई लाजवाब हो प्यार के मामले में।“
कहकर वह स्वयं ही कविता के वस्त्रा खोलने लगा और देखते ही देखते उसने कविता को पूर्ण निर्वस्त्रा कर दिया और स्वयं भी उसी अवस्था में आ गया।
कविता भी कमसिन और नादान उम्र में भूल गई थी कि वह क्या करने जा रही है और कितनी उम्र के व्यक्ति के साथ करने जा रही है। उस पर तो उस समय वासना का भूत सवार था, जो उसे बहकने पर मजबूर कर चुका था।
फिर कविता वहीं पास ही पर पड़े सोफे पर लेट गई और बोली, ”सर आओ…करो अपनी ट्यूशन शुरू।“ वह मदहोशी भरे स्वर में बोली, ”मेरा एक-एक लैसन पढ़ डालो।“ वह बेकरार होती हुई बोली, ”इस अनजाने सुख से मुझे वंचित न करो। मैं बहुत बेसब्र हो रही हूं इस सुख को पाने के लिए।“
फिर विश्नोई, सामने सोफे पर निर्वस्त्रावस्था में चित्त पड़ी कविता के संगमरमरी जिस्म को देखकर पागल होने लगी। उसका दिल बेतरहा धड़कने लगा। वह अपनी किस्मत पर खुद ही गर्व करने लगा कि इस उम्र में भी उसे कितनी कमसिन जवानी का सुख भोगने को मिलने जा रहा है।
वह सोफे पर बैठ गया और निर्वस्त्रा लेटी हुई कविता की जांघों के बीच ‘किताब’ का एक-एक पन्ना अपने हाथों से पलटते हुए पढ़ने लगा। कविता सीत्कार कर उठी…
”ओह….हाय…।“ कविता सिर के नीचे रखे तकिये को दोनों हाथों से मरोड़ते हुए बोली, ”बहुत अच्छा लग रहा है सर… मैं तो बहुत आनंद महसूस कर रही हूं।“
”ये तो कुछ भी नहीं, अब देखो।“ कहकर विश्नोई मौखिक प्रेम कविता की खुली ‘किताब’ को देने लगा।
इससे तो बेचैन होकर तड़प उठी कविता, ”उम…हो…क्या कर रहे सर… आप मौखिक दुलार न करें।“
”तुम्हें मजा नहीं आ रहा।“
”मजा तो बहुत आ रहा है… पर आप उस जगह पर ऐसा कर रहे हैं, ये मुझे अच्छा नहीं लग रहा।“
”सेक्स में अच्छा-बुरा कुछ नहीं होता..।“ विश्नाई बोली, ”पार्टनर को हर संभव खुशी व संतुष्टि देने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।“ फिर एकाएक खड़ा होकर बोला विश्नोई, ”चलो अब तुम भी मेरी ‘कलम’ को मौखिक प्रेम दो।“
कविता भी बड़े विशेष अंदाज में विश्नोई के ‘कलम’ को मौखिक प्रेम देने लगी। विश्नोई मस्त हो गया। वह कविता को बालों से पकड़ कर आक्रामक तरीके से मौखिक प्रेम का आनंद उठाने लगा।
कुछ देर तक यही काम होता रहा… फिर विश्नोई बोला, ”चलो अब तुम दोबारा लेट जाओ सोफे पर।“
”ये लो सर।“ कविता लेटते हुए बोली, ”मैंने आपकी कलम में पूरी तरह मौखिक प्रेम से स्याही भर दी है। अब आप मेरी किताब का हर पन्ना अपने कलम की स्याही से भर सकते हैं।“
फिर जैसे ही विश्नोई ने कविता की निर्वस्त्रा खुली ‘किताब’ पर अपने कलम से प्यार का पहला अक्षर लिखा, कविता बुरी तरह छटपटाने लगी…
”उई मां.. सर जी…।“ वह दर्द से बिलबिलाते हुए बोली, ”बहुत मोटी और पैनी कलम है आपकी। मेरी किताब फट गई लगता है…।“
”पहली बार में कुछ पन्ने फटते ही हैं डियर कविता।“ विश्नोई, कविता को भोगते हुए बोला, ”तुम चुपचाप लेटी रहो…कुछ देर बार तुम्हें आनंद की अनुभूति होगी।“
फिर विश्नोई ने उस रोज ऐसा प्रेम किया कि कविता की नस-नस खुल गई। वह आनंदविभोर होकर दूूसरी ही दुनियां में खो गई। मगर जब सिर से वासना का भूत उतरा तो उसे एहसास हुआ कि वह अपना कौना-सा अनमोन ‘गहना’ लुटा बैठी है।
अब तो वह बुरी तरह रोने लगी…
”ये मुझसे क्या हो गया सर…।“ वह विश्नोई के कंधे पर सिर रखकर रोने लगी, ”हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था… पता नहीं कौन से आकर्षण में मैं आपकी ओर खींची चली गई और ये सब… ओ नहीं…।“ और भी बुरी तरह रोने लगी कविता। आंखों में आसूं आ गए, पश्चाताप के आंसू ।
”कविता, इसके लिए तुम अकेले जिम्मेवार नहीं हो। हालात, समय के भंवर में पड़ कर इंसान खुद पर कहां नियंत्राण रख पाता है? जो हुआ, अनजाने में हुआ और ईश्वर की मर्जी से हुआ।“ विश्नोई ने कविता को ढाढस बंधाते हुए कहा।
कविता ने उस रोज मन ही मन इरादा तो कर लिया कि वह भविष्य में ऐसी भूल दोबारा नहीं करेगी, पर परिस्थितियों के भंवर में पड़ कर उसे अपनी बात मुंह चिढ़ाने लगी।
एक बार फिर से कविता के कदम वासना के दलदल में धंसते चले गए। उसी रोज, उसे एहसास हुआ कि प्रिंसिपल विश्नोई का प्यार पाक नहीं है। त्याग की जगह वहां फरेब व खुदगर्जी की बू आती है और यही एहसास अगली मुलाकातों में मुखरित होता चला गया।
न चाहते हुए भी कविता विश्नाई की वासना की भंेट चढ़ती गई। उसी रोज उसे एहसास हुआ कि प्रिंसिपल विश्नाई वैसा नहीं है, जैसा वह खुद को जाहिर करता है। वह तिलमिला उठी और विश्नाई के सामने जाने से कतराने लगी।
विश्नाई ने कविता की ताक में 15 दिन गुजार दिए। वह स्कूल भी नहीं आ रही थी। विश्नोई की बेचैनी बढ़ गई। उसने कविता को बुलाने के लिए अपना एक खास संदेश वाहक उसके घर भेजा। संदेह वाहक के हाथों कविता ने मैसेज भेज दिया। जिसमें भारी मन से कविता ने लिखा था।
”अतीत में की गई गलतियों से मंैने सबक सीखा है सर! मैं आपसे निकट भविष्य में मुलाकात नहीं कर सकती। स्त्राी की आबरू ही उसका गहना है और यह गहना मैं अपने पति के लिए सुरक्षित रखना चाहती हूं। मुझे माफ कर देना। मैं शादी करने जा रही हूं…।“
”नहीं, कविता नहीं! मैं तुम्हारी शादी नहीं होने दंूगा। तुम सिर्फ मेरी हो, मेरी!“ विश्नाई ने कविता का खत पढ़कर मन ही मन कहां और फिर सोचकर मुस्करा उठा, ”जिस रोज तुम्हंे पता चलेगा की मैंने तुम्हें इस लायक छोड़ा ही नहीं है कि तुम अपनी मर्जी से कुछ कर सको…।“
विश्नोई की उम्मीद के अनुसार ही एक रोज स्वयं कविता मंगनी का कार्ड लेकर उसके पास पहुंची। उसी रोज, उसी क्षण विश्नाई ने धमाका-सा कर दिया, ”कविता जब तुम मेरे बारे में सब कुछ जानती ही हो तो अब क्या छिपना-छिपाना? ये फोटोग्राफ देख रही हो ना, इसी दिन के लिए मैंने इंतजाम कर लिया था…।“
कविता की नज़र जब अपने ही नग्न चित्रों पर पड़ी, तो वह सन्न रह गई। उसका माथा चकराने लगा। दूसरी तरफ अपनी योजना की सफलता पर मुस्करा उठा विश्नोई, क्योंकि कविता उसकी अंगुलियों के इशारे पर थिरक उठने के लिए मजबूर थी।
एक बार तो कविता के जी में आया कि वह आत्महत्या करके इस मुसीबत से हमेशा के लिए छुटकारा पा ले। फिर उसने सोचा, कि विश्नाई अगर जिन्दा रहा तो ना मालूम स्कूल-काॅलेज की कितनी ही लड़कियां इसी तरह उसके शोषण का शिकार होती रहंेगी। उसके चंगुल में पड़ कर परकटे पंछी की तरह फड़फड़ाती रहेंगी।
कई जिंदगियों को पिं्रसिपल की हवस का शिकार होने से बचाने के लिए कविता ने योजना बद्ध तरीके से प्रिंसिपल की हत्या कर दी तथा बाद मंे स्वयं पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।
कहानी लेखक की कल्पना मात्र पर आधारित है व इस कहानी का किसी भी मृत या जीवित व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर ऐसा होता है तो यह केवल संयोग मात्र होगा।