Maine 40 se jyada mardo se chudwan pada
आज पति सतीश, एक मोबाईल की दूकान का मालिक, सुबह ९ बजे घर से निकल के रात को १० बजे घर वापस आना, यह आज १५ साल से रूटीन है.
आज कम से कम ३०से ४० पर पुरुषों जिसमे बूढ़े ,जवान, किशोर, पडोसी, अजनबी, वॉचमैन,दूधवाला,सब्जीवाला, डॉक्टर, साधू, पंडित, दूकान का नौकर, मजदूर, नंदोई का भाई, नंदोई, ननद के ससुर, बहन का ससुर, बेटों का क्रिकेट कोच शामिल हैं, सबके लिंग से अपनी योनि का मर्दन करवा चुकी हुँ. ऐसी तो ना थी मैं? कैसे कब क्यों हो गई? अब कोई ग्लानि या पछतावा नहीं है.
जानना चाहेंगे आप, मन हल्का करने के लिए सब बताना चाहती हूँ, दोनों बेटे भी सतीश अर्थात मेरे पति के नहीं है, सब पंडितजी और तांत्रिक बाबा की कृपा है।
लेकिन सतीश को आजतक पता नहीं चला,
झूठ नहीं कहूँगी लेकिन असल में मेरा नाम प्रीती नहीं है, उससे मिलता जुलता है, पति का नाम भी सतीश नहीं है, लेकिन आप सब समझ सकेनेग की नाम छुपाना पड़ता अहै, हाँ सरनेम पांडे है मेरा , शादी से पहले दुबे थी।
एकदम छिनार हो गए अब मैं, शुरुआत करती हूँ.
बनारस में पली बढ़ी, पाण्डेपुर में ही हमारा दो मंज़िला मकान है, ऊपर किर्रायेदार रहते हैं परिवार के साथ ,नीचे पिताजी की दूकान और हमारे ४ कमरे, माँ, दो भाई, एक छोटी बहन, दादी और चाचा चाची उनके बच्चे पुश्तैनी मकान में रहकर गाँव की खेती बाड़ी संभालते हैं, अब गाँव का नाम पता मत पूछना , मकान भी पाण्डेपुर में नहीं है , थोड़े अगल बगल में ही है, अब एकदम पूरी पहचान नहीं बता सकती, क्या पता कोई जान पहचान वाला पढ़ ले, सतीश मतलब मेरे पतिदेव ही कभी पढ़ लें तो?
हाँ स्कुल वहीँ है, ??? निकेतन विद्या मन्दिर. खैर , पढ़ने लिखने में सदाहरण थी, ना बहुत अच्छी ना बहुत खराब . सुंदर थी, आकर्षक , १२ क्लास तक उम्र १७ साल में आराम से पहुँच गई, दोनों भाई बड़े थे, डिग्री कॉलेज जाते थे उस वक़्त, मैं जवान हो रही थी, भगवान की दया से रंग मेरा बहुत गोरा है, कद ५ फिट २ इंच, इस समय, क्लास १२ में लगभग इससे १ इंच कम रहा होगा, दुबली पतली सी थी मै, अब तो गदरा गई हूँ, अब चलती हूँ तो कबूतरों को टाइट ब्रा में ना रखूं तो ना जाने कितने शिुकारी बाज़ झपट्टा मार लें,
मुंबई की सड़कों पर शाम को सब्जी लेने जाओ तो कम से कम ३ ४ कड़क हाथ चूतड़ ज़रूर दबा देते हैं, कम से कम एक बार और नहीं तो एक कुहनी चूची पे भी कोई ना कोई लगा ही देता है, हमारे देश में नारी की यही कहानी है, थोड़ी बड़ी हुई नहीं कि रास्ता चलना हराम, पति तो सुहागरात में क्या छुएगा उससे पहले इतनी बार सड़कों पर गलियो में चूची और चूतड़ पर कई हाथ पड़ चुके होते हैं, मन करता है ऐसी मशीन लगा के चलें लडकियां कि कोई छुए तो तगड़ा करंट लगे और ठरकी वहीँ करंट से मर जाएं.
खैर स्कुल लड़कियों का था, जवानी तो फूटी ही थी, मन में सपने उमंगें आते ही थे, फ़िल्में, गीत सबकी चर्चा सहेलियीं से होती थीं, १९९४ की बात है, मेरा फेवरेट नया नया फिल्मों में आया अक्षय कुमार था, ऐसे ही पति के सपने देखने लगी थी मैं, जो लंबा हो, घने लम्बे बाल हों, चौडी छाती ही, और मुझे पहाड़ों में लेकर वादा रहा सनम, होंगे जुड़ा ना हम गाये, और कभी रोमांटिक सेक्स का मुद हो तो मुझे पानी की टंकी में उठा कर गिराये और गाये टिप टिप बरसा पानी ,(मेरी शकल रवीना टंडन से काफी मिलती है, ऐसा सभी कहते हैं)
कई सहेलियों के बॉयफ्रेंड बन चुके थे, चुप चुप के चिट्ठीबाजी होती थी, मेरे भी पीछे कुछ आवारा मंडराने लगे, मन ही मन अच्छा लगता था लेकिन दिल तो मैं अक्षय कुमार को दे चुकी थी, ये पता था अक्षय कुमार मेरे नसीब में नहीं है लेकिन कम से कम उसका कोई डुप्लीकेट तो मिले. रही सही कसर सहेलियों ने रवीना कहकर निकाल दी थी और मेरा दिमाग सातवें आसमान पे था, लगता था बनारस के ये पान गुटका चबाने वाले और दुपहिए पे घूमने वाले ओल्ड फैशन के कपडे पहन कर मन्द्रणाने वाले मेरे दिल में नहीं बस सकते,
एक बार हमारे किरायेदार के बेटे जो कि सेकंड ईयर डिग्री में था जिसका नाम अमित पाठक था, उसने बड़ी हिमंत से मुझे रास्ते में रोका और कहा प्रीति मैं तुम्हे बहुत चाहता हूँ ,बचपन से ही तुमसे प्यार करता हूँ, तुम कहो तो तुम्हारे लिए दुनिया छोड़ दूँ, मुझे बड़ी घबराहट हुई , लेकिन मैंने हिम्मत बाँध कर कहा कि ज्यादा बकैती करोगे तो दुनिया नहीं मकान ज़रूर छुड़वा देंगे, वह डर कर चला गया, उसके एबाद कई दिनों तक मेरे सामने आता तो नज़रें नीची कर लेता, ये मुझपर ज़िंदगी में किसिस ने पहला प्रोपज था.
हाँ जी, आ गई अपना अपडेट लेकर. अमित ने मुझे प्रोपज किया लेकिन मैंने भाव नहीं दिया, बेचारा बहुत घबरा गया, कई दिन तक उसे देखके लगता था कि डर के मारे आत्महत्या ना कर ले. मेरी सबसे पक्की सहेलियां थीं साबिहा और गीता। सबीहा के पिताजी खाड़ी के देश में काम ,करते थे , उसके ३ बहनें और एक छोटा भाई था. वो घर में सबसे बड़ी थी। गीता के पिताजी की लेडिज कपड़ों की दूकान थी जिसमें औरतों लड़कियों के सलवार सूट के कपडे, ब्रा पेंटी, इत्यादि बिकते थे. उसके भी एक छोटा भाई था कुणाल ,जो सबीहा के भाई हसन के साथ कक्षा ४ में पढता था.
हम तीनों सहेलियों की आपस में बहुत बनती थी, कभी से कुछ नहीं छिपाती थीं हम तीनों.
सबीहा अपने सगे चाचा जो कि लगभग २५ साल का था, फंसी थी, और बाद में पता चला कि उसका चाचा सुहेल उसकी माँ को भी छानता था.
गीता हमारे ही कन्या विद्यालय में साइंस पढ़ाने वाले नवजवान मास्टर, विजय त्तिवारी उम्र तक्सीबन २५ साल , जो २ साल पहले ज्वाइन हुआ था उससे फंसी थी और कई बार मैं और सबीहा कमरे के बाहर पहरा देते थे स्कुल में जिसके फलस्वरूप परीक्षा में हमें कभी कोई तकलीफ नहीं हुई. वैसे और भी बहुत सी सहेलियां थीं जिनाक ज़िक्र समय आने पे करूंगी.
हाँ तो ये दोनों मुझे खूब उकसाती थीं कि तू भी किसी की होजा रवीना, अक्षय जब आएगा तब आयेगा. लेकिन मैं अपने पथ से डगमगाती नहीं थी। ऐसा नहीं था कि मेरी इच्छा नहीं होती थी खासकर के जब विजय सर गीता को मस्तराम की किताबें देतें पढ़ने के लिए और गीता हमें देतीँ. घर में अपने कमरे में रात को छुप कर चुदाई पेलाई लंड बुर ये सब पढ़ कर दिमाग भन्ना जाता लेकिन किसी तरह मन पे काबू कर लेते। सबीहा अक्सर कर्मचन्द नामक अश्लील साप्ताहिक पत्रिका लाती जो उसे उसका चाचा देता, उसमें सचित्र कहानियां होती थीं चुदाई की, मुझे मन ही मन पता था कि सबीहा का चचा मेरी सील तोड़ना ,चाहता था, लेकिन मैं काफी चालाक थी और सब अक्षय कुमार जी की कृपा थी। और मैंने स्टारडस्ट नामक मेग्जीन में रवीना का इंटरव्यू पढ़ा था जिसमें उसने कहा था कि मेरा कौमार्य मेरे पति को मेरी ओर से भेंट होगा और मैं चूँकि रवीना को आदर्श मानती थी और उस वक़्त ये हवा थी कि वो अक्षय से शादी करेगी तो मैं भी मन ही मन में संकल्प ले चुकी थी कि मेरी बुर का उद्घाटन भी मेरा पति जो अक्षय कुमार जैसा दीखता होगा वही करेगा.
बनारस में जाड़ा बहुत गज़ब का पड़ता है, गर्मी में तो पसीना से आदमी नहा जाता है. जाड़े का टाइम था , दिसम्बर का महीना , १० दिसम्बर १९९४, मैं रज़ाई में शाम को जाके घुस गई, बड़ी ठण्ड लग रही थी, तभी बहार दूकान के यहां कुछ आवाज़ें आने लगि.
सुनने की कोशिश की तो पता चला की मौसी मौसा और उनकी बेटी संध्या आई है, लखनऊ से. मैं रज़ाई से कूद पड़ी, संध्या मेरी हमउम्र थी पढ़ाई छोड़ चुकी थी, ईसि साल उसकी शादी हुई थी, गौना बाकी था.
ज़ारी …..
मैं राजइआ से कूद कर बाहर की ओर भागी, सामने मौसी दिखीं घर में गलियारे में , मैंने लपक कर उनके पाँव छू लिए, वो मुझे उठा कर गले से लगा ली और मेरे गाल चुम के अपनी उँगलियों को बाँध के मेरी ठुड्डी पर रख कर बोली ” ई प्रीति त सयान होत जात है, अबके जीजा से कहवाके संध्या के गवने में इनहु क बियाह हो जाय ” मैं शर्मा कर बोली ” धत्त मौसी, आप बड़ी गन्दी हैं. ” वो हंसने लगी और आगे की ओर चल दी , पीछे संध्या दीदी थि. संध्या दीदी की उम्र इस वक़्त २० साल की थी, गोरा रंग, चमकदार चेहरा, जैसे खून गाल से चु पड़े कभी भी, मैंने झुक कर उनके पाँव छ्ये , उन्होंने भी उठाकर मुझे गले लगा लिया, और चुम लिया गालों को, मौसा मौसी की ईकलौती संतान थी , बड़े लाड प्यार से पाली थी, मौसा जी लखनऊ में बिजली विभाग में इंस्पेक्टर थे, मैंने पूछा मौसा जी कहाँ हैं, वो बोली बाहर बरामदे में ही बैठे हैं मौसी मौसा के साथ. मैं बोली पाँव छु आउ, बहार गई तो तख़्त पर मौसा जी माताजी भाई बैठे थे, मौसा जी से मैं ज्यादा बात नहीं करती थी, उन्होंने हाल चाल पूछा, मैंने भी बता अंदर आ गई.
संध्या दीदी का हाथ पकड़ कर खिंच कर अपने कमरे की तरफ ले गई , तबतक आवाज़ आई ” अरे पिरीती , मौसाजी के तनो चाह तो पीया दे ” मौसाजी की आवाज़ आई ” नहीं दीदी , अब सिदे खाना खाएंगे” मैं सुनकर संध्या दीदी को अपने कमरे में ले गई, इस बीच मौसी जी बाथरूम में चली गई थीं.
मैं संध्या दीदी को पलंग पर धक्का दिया और कहा” दीदी, जीजा की कोई चिठ्ठी आती है या नहीं छुप के?” ओ बोली धत्त।
मैंने अचानक आने का प्रोग्राम पूछा तो बोली सस्पेंस है कल खुलेगा.
यूँही बातों में रात हो गई, में बड़ी काम चोर थी, मान और मौसी वना बना के सबको खिला पिला एके सोने भेज दिया, संध्या दीदी ज़ाहिर है मेरे साथ सोने वाले थीँ , मैं बिस्तर पर लेट गई और संध्या दीदी दिवार में बानी अलमारी की और बढ़ कर मनोरमा गृहशोभा सरिता ढूंढने लगी, तभी अचानका धम्म से एक किताब गिर पड़ी, मैंने ध्यान नहीं दिया, लेकिन संध्या दीदी ने उठाई तो हाथ में मस्तराम की किताब! हे भगवान, मैं किताबी आज ही आधा पढ़ के वहीँ छुपा दी थी, मेरे कमरे में कोई आता भी नहीं था, वो पैन पलटने लगी, मेरी तरफ देख के पुछि ये ?मैं घबरा गई, संमझ में अनहि आया दूँ, दर के मारे मेरा चेहरा सुख गया, बड़ी मुश्किल से थूक को हलक से निचे उतार के कहा, ” क्या दीदी?” वो बोलीं ” ये गन्दी किताब” मैंने अनजान बनते हुए कहा” दीदी, मुझे नहीं पता, हो सकता है गृहशोभा आज ही मैंने रद्दी वाले से ली थी उसमें आ गया हो.” वो किताब लेकर मेरे बगल में बैठ गई और पैन पलटने लगी और बोली “सच कह रही है तू?” मैंने तुरंत जवाब दिया” कसम से दीदी ” और रुआंसी हो गई , वो बोलीं कोई बात नहीं,चल देखें तो इसमे?” बीच के पन्नों में ४-५ रंगीन चित्र होते थें, जिसमें अँगरेज़ औरत मर्द की चुदाई की तस्वीरें हुआ करती थीं, वो गौर से देखने लगी , पहली तस्वीर में एक औरत के मुंह में लण्ड था किसी नीग्रो का और वो एक गोर के लण्ड को अपनी बुर में घुसाये हुए थी और गोरे की सिर्फ गोलियां दिख रही थीं, दूसरे पन्ने पर एक औरत कुतिया की तरह घुटनों पे और कुहनियों के बल झुकी थी और एक गोरा आदमी उसके पीछे से उसकी बुर में लण्ड घुसाये हुवा था, उसका अाधा लण्ड बाहर दिख रहा था, तीसरी तस्वीर में एक जवान लड़की एक दूसरी जवान लड़की के होंठ को अपने होंठ में दबा के चूस रही थी और दोनों एक दूसरे की बुर में एक ऊँगली डाली थी और एक दूसरे की चूची ज़ोर से दबाई थीं, दीदी ने कहानी के लिए पहला पन्ना पलटा। कहानी का शीर्षक था ” मास्टर ने सील तोड़ी” अब धीरे धीरे मैं भी नार्मल होने लगी और साथ में कहानी पढ़ने लगी, (कहानि मैं वैसे पहले ही पढ़ चुकी थी), जैसे जैस एकहणै में चुदाई वर्णन होने लगा दीदी की साँसो की आवाज़ आने लगी, दीदी बिस्तर पर लेट गई और रज़ाई ओढ़ ली, दीदी ने मैक्सी पहना था और मैंने शर्ट और स्कर्ट , उसने मुझे कहा तुम भी आजो रजाई में, फिर हम दोनों साथ में पढ़ने लगीं , रज़ाई मजे , मैं दीदी के कंधे पे झुकी थी जिससे पढ़ सकूँ, लेकिन पढ़ते पढ़ते ना जाने कब दीदी का हाथ मेरे स्कर्ट के अंदर जाँघों पर फिरने लगा, मैं समझ नहीं पा रही थी क्या करूँ, तभी दीदी ने मेरा हाथ लेकर अपनी मेक्सी के ऊपर ही अपनी चूची पर रखवा दिया, और मेरी और देख कर बोली ” प्रीति, दबाओ ” मैं भी धीरे धीरे संकोच छोड़ दी और दीदी की दायीं चूची , मेक्सी के ऊपर से धीरे धीरे सहलाने लगी, तभी दीदी का हाथ मेरे बुर के किनारे पहुँच गया, मैंने पैंटी पहनी थी, उन्होंने पेंटी के किनारे से मेरी बुर के उभरे हुए बाहरी भाग को ऊँगली से सहलाना शुरू कर दिया।
अब मेरा शरीर कांपने लगा, क्युकी आज तक मेरे अलावा किसी और का स्पर्श मेरी योनि के आसपास तक नहीं हुआ था, ऐसा महसूस शायद सभी को अपने जीवन में ज़रूर हुआ होगं भले ही वो एक स्त्री का स्पर्श था किन्तु मेरे पास कोई शब्द नहीं है उस फीलिंग को शब्दों में बताने के लिए, इसे ही कहा गया है गूंगे केरी सरकारा, खाइ और मुसकाय। ऐसा सभी के साथ हुआ ही होगा. मैं एकदम से ना जाने किस दुनिया की सैर में पहुंच गई, तभी दीदी ने ऊँगली पेंटी के किनारों से आगे बढ़ाते हुए सीधे सीधे गरम तवे पर रख दिया, हीटर चल रहा था, रज़ाई की गर्मी और सबसे बड़ी बुर में से निकल रही गर्मी, ना जाने पसीना था या बुर से चूता हुआ कामरस, ऊँगली फिसल कर मेरी अक्षुण्ण बुर के मुख्य द्वार पर आ गई, दीदी उसे अपनी ऊँगली से कुरोदने लगीं। मेरी टांगें अपने आप खुल गयी जैसे ऑटोमेटिक दरवाजे के सामने खड़े भर रहने से दरवाज़ा खुल जाता है. अब दीदी की चारों उंगलियां मेरी पेंटी के अंदर थी, और मैंने जोश में आँखें बंद ही बंद उनकी चूची कसकर दबा दी, नतीजे में दीदी ने एक सिसकारी ली और मेरी बुर को मसल दिया, मेरे होंठ मारे स्वर्गिक आनंद के आह की आवाज़ के साथ खुल गए,दीदी ने तुरंत मेरे निचले होंठों को अपने दोनों होठो के बीच दबा लिया, मुझे तुरंत मस्तराम की किताब में चुम्बन ले रही दोनों लेस्बियन याद आ गई और मैंने अब दीदी के मेक्सी में हाथ दाल दिया ऊपर से और सीधे चूची के निप्पल को दो उंग्लियोंज के बीच में ले कर मसलने लगि. और ना जाने कैसे किस अदृश्य ताकत के इशारे पर अपना चूतड़ उठा कर दीदी का हाथ पकड़ कर अपनी पेंटी के उप्र इलास्टिक पे ले गई दीदी समझ गई कि प्रीति को अब पेंटी बोझ लग रही है, दीदी ने उसे सरका दिया, थोड़े एडजेस्टमेंट के बाद पेंटी मेरे झान्नँघों घुटनों से होते हुए एड़ियों तक पहुँच गयी, मैंने पाँव में पाँव फंसा कर पेंटी को खिंच कर यूँ फेंक दिया जैसे सड़क पर किसि के पैर में कोई कचरा लग जाए और वो पैर झटक दे. इस बीच दीदी ने चुम्बन की गति बढ़ा दी, कस कस कर मेरे निचले होंठ को चूसे जा रही थी,मेरा और दीदी का मुंह सलाइवा से भर गया, जिसका आदान प्रदान मुख से होने लगा, ऐसा लगने लगा कि दीदी चुम्बन में एक्सपर्ट है, ( अक्षय जी ने बाद में ऐसा ही चुम्बन ममता कुलकर्णी का सबसे बड़ा खिलाड़ी मूवी में लिया था) फिर अचानक दीदी ने अपनी जीभ मेरे मुंह में दाल दी, मैं समझ गई कि इसे चूसना है, और चूसने लगी, इस बीच दीदी का हाथ अब मेरे बुर की पूरी सैर कर ,बुर के छेद पर दीदी ऊँगली घिस रही थी, और तभी मेरा हाथ खुद बी खुद दीदी के मैक्सी के बीच उनकी टांगों के बीच पहुँच गया, स्पर्श करते ही पहला अहसास हुआ कि बुर पर बाल नहीं हैं, दीदी ने शायद आज ही शेव किया था जबकि मेरे बुर के झांट चंद्रप्रभा जंगल(बनारस के नजदीक का जंगल) की तरह बढे हुए थें, आज तक कभी रेज़र नहीं ,लगा था,
दीदी की बुर की चिकनाई जबरदस्त लग रही थी, बुर पूरी तरह गिल्ली हो चुकी थी, मेरी एक ऊँगली भी उन्हीं की उंगली का अनुसरण करते हुए उनकी बुर के छेड़ को घिसने लगी,
मेरी ऊँगली दीदी की बुर के कामरस से चिपछिपा रही थी, वहीँ दीदी ने जोश में आकर मेरे निचले होंठ को अपने दांतों से पकड़ कर जोर स एकांत लिया, मैं दर्द भरे आनंद से सिसक उठी और मेरी नाख़ून तक की ऊँगली दीदी के बुर के छेद में सरक गई , अचानक दीदी को जाने क्या हुआ, उन्होंने मेरा हाथ रोक लिया होंठ छोड़ दिए, और अपना हाथ भी मेरी बुर से हटा लिया, और मेरे हातो को अपनी चूची से भी हटा दिया. मैं कुछ समझ नहीं पाई मुझसे कोई गलती हुई थी क्या? फिर वो एक किनारे सरक कर अपनी मेक्सी ठीक की और अपनी चूचियों को फिर से मैक्सी में डाल दी , मैंने भी उनका अनुसरण करते हुए पलंग के निचे झुक कर अपनी पेंटी उठा ली और पहनने लगी, दीदी ने टोका” तुम पेंटी पहन कर सोती हो क्या?” मैंने बस सर हाँ में हिला दिया. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मुझसे कोई भूल हुई थी क्या ? मेरी परिस्थति उस बालक के समान हो गई थी जिसे प्यार से गोदी में खिलाते खिलाते कोई अचानक एक थप्पड़ मार दे, उस बालक को कुछ समझ नहीं आता कि क्या त्रुटि की मैंने? खैर मेरी हिम्मत माहि हो रही थी दीदी को पूछने की, मैं भी बिस्तर पर आ कर लेट गई और रजाई ओढ़ ली, दीदी कुछ नहीं बोल रही थीं, अचानक उन्हेोने किताब उठाई और कहा ” प्रीति, ये किताब तुम कहाँ से मिली? देख झूठ मत बोलना. ” मैं खामोश रही , फिर सर झुका कर बोली” मेरी सहेली ने दिया ” ” उसको कहाँ से मिली?” ” उसको हमारे सर ने दिया” ” क्या? सर ने? अरे, मतलब इतनी बड़ी उम्र का शिक्षक ऐसी हरकतें करता है? मैं बता दूँ मौसी को?” मैं डर से काँप गई, सर उठा कर दीदी की और यादेख कर याचना भरे स्वर में कहा ” नहीं दीदी, प्लीज , मैं मर जाऊॅंगी, ऐसा मत कर्ण.” ” सच सच बता, तूने किसी के सतह सेक्स किया है?” ” नहीं दीदी , मम्मी की कसम, कभी नहीं, लेकिन मेरी सहेलियों ने किया है,” और मैं साड़ी बातें दीदी को बताती कहली गई, सबीहा के चाचा और विजय सर के साथ सबीहा और के सम्बन्ध.
दीदी बोली” तुम लोग पागल हो क्या? कभी कुछ हो गया ऑटो पता है कितनी बदनामी होगी? ज़हर खाके मर जाना पड़ेगा.”
” सॉरी दीदी , मैं सच कहती हूँ मैंने कभी भी ऐसा कुछ नहीं किया न यही करुँगी, तुम्हें वचन देती हूँ, मम्मी की कसम” यह कहते ही मैं दीदी से लिपट कर रोने लगि.
दीदी ने मुझे चुप कराया और माहौल को हल्का बनाने के उद्देश्य से बोली ” चल कोई बात नहीं, अच्छा बता तुझे अच्छा लगा”
” धत्त दीदी ”
” अरे इसमें क्या है, देख मुझे तो अच्छा लगा.”
” फिर आपने रोक क्यों दिया?” मैंने बड़ी ही धीमी आवाज़ में सर झुका कर कहा.
दीदी हंस पड़ी और कही ” अरे ऐसे ही, मुझे भी नहीं पता. वैसे ये सही तो नहीं है लेकिन पता नहीं क्या हो गया था मुझे? अच्छा ये बता तू बाल नहीं बनाती?’
” क्या दीदी , देखो बनाया तो है, कहा के अपने सर के बाल पर हाथ घुमाया।
दीदी खिलखिला के हंस पड़ी” आरी पागल, मैं निचे तेरे जंगल उग आया हूँ उसकी बात कर रही हुँ.”
” धत्त!”
” अच्छा छोड़ , ये बता तुझे कोई पसंद है?”
” नहीं दीदी , मैं तो सिर्फ शादी के बाद ही ये करुँगी, लेकिन दीदी मुझे आपके साथ बहुत अच्छा लगा” बड़े ही धमे स्वर में मैंने कहा. ” मुझे भी , चल एक बार फिर से हो जाए?”
मैं कुछ ना बोली, दीदी मुझे देखती रही फिर आगे बढ़कर मेरे होंठ अपने होंठो के बीच दबा लिए और ज़ोर से दबा के छोड़ दी और फिर हैट गई, बोली बस इतना हि.”
मैंने पूछा” अच्छा दीदी, ये बताओ अचानक कैसे प्रोग्राम बना?”
” आरी कल सुबह का अिन्त्ज़ार कर, सब पता चल जाएगा”
“प्लीज़ दीदी बोलो ना”
” ठीक है, बताती हूँ, लेकिन तू मेरा नाम मत बताना, देख, तेरे जीजाजी हैं ना, उनकी बुआ के देवरानी का परिवार बम्बई रहता है, मेरी शादी में जब बारात आई थी, तो तेरे जीजा के फूफा के साथ उनके भाई भी आये थे, तभी उन्होंने तुझे देखा अतः और तू उन्ही बहुत अच्छी लगी थी, फिर वो बम्बई चले गये. अभी कुछ दिन पहले उन्होंने बम्बई से फोन करके शादी की एल्बम से तेरी फोटो मंगवाई, जो पापा ने भेज दी, तेरी फोटो उनके पुरे परिवार को खूब पसंद आई, उनकी एक लड़की है जिसकी शादी हो गई बम्बई में ही, उनका एक ही लड़का है सतीश, वैसे तो मेरा देवर लगा, उम्र अभी २० साल है, बमबई में, उनकी खुद की टी वि , रेडियो की दूकान है, बम्बई मालाड में, और बुआ जी के देवर का ब्याज का भी धंधा है, महीने की काम से काम ५०००० रुपिया आमदनी है, राज़ करेगी तू मेरी रानी, बम्बई में, तेरे तो भाग खुल गये.”
मैं दीदी की बातें सुनकर कुछ पल के लिए शून्य में खो हगै, मुझे समझने में समय लगा, फिर मैं समझी कि मेरे ब्याह की बात हो रही है, मैं समझ नहीं पा रही थी कि मैं क्या रिएक्शन दूँ? अपने आपको मैं अचानक बड़ी महसूस करने लगी, एक क्षण के भीतर मेरे मस्तिष्क में मेरे बचपन से लेकर आजतक की साड़ी घटनाएँ एक बिजली की तरह कौंध गयीं, क्या मैं सचमुच शादी के लायक हो गयी? यह सोच कर मैं लजा गयी लेकिन किस अनजाने एहसास से मेरी आँखे भर आईं और मैं सुबकने लगी। शायद बाबुल का घर , सखियों का साथ, ये आज़ादी अब बस कुछ दिनों का मेहमान थी , इस विचार ने मुझे कंपा दिया. मेरे मन में यह गीत बज उठा जो हम लोग कई शादियों में गाते थे ” कवन गरहनवा पापा लागे दुपहरिया, हे कवन गरहनवा भिनुसार जी
कवन गरहनवा पापा रउरा पर लागे कब दल उग्रिन होस जी”